; विश्व कल्याण, भारतीय संस्कृति और भारतीय मीडिया का रुख
विश्व कल्याण, भारतीय संस्कृति और भारतीय मीडिया का रुख

संस्कृति, मानव जीवन की विधि या विधान का दूसरा नाम है। परिष्कृत संस्कार या संस्करों की रचना किसी सभ्यता की संस्कृति का अर्थ कहे जा सकते हैं। हालांकि संस्कृति को विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने ढ़ंग से परिभाषित किया है परंतु कोई भी सर्वमान्य परिभाषा नहीं मिल पाई। न ही ऐसा कोई मत बन पाया जिस पर सभी एक राय हो। लेकिन बावजूद इसके एक बात जो मूल में है वो यह कि मानव समूह के आंतरिक बाह्य जीवन को एवं मानव के शारीरिक मानसिक शक्तियों को संस्कारवान विकसित और सुदृढ़ बनाने की प्रकिया को संस्कृति माना जा सकता है, जिसमें वह जीवन यापन की परम्परा प्राप्त कर संस्कारित सुदृढ़, प्रौढ़ और विकसित बनता है।

भाषा विद्वान बताते हैं कि संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है, जिससे तीन शब्दों की उत्पत्ति हुई है। पहली प्रकृति, दूसरी संस्कृति तथा तीसरा शब्द विकृति है। यहां संस्कृति का शाब्दार्थ सर्वोत्तम या संस्कारित करने की स्थिति को प्राप्त करना है। इसी रूप में भारतीय संस्कृति अपने मूल्य एवं संस्कारों के बल पर विश्व प्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति ब्रामांड की प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। यहां यह भी साबित है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिश्र, सूमेर और चीन की संस्कृतियों से भी प्राचीन है। कई भारतीय विद्वानों ने तो भारतीय संस्कृति को सर्वोच्च एवं प्राचीनतम संस्कृति का नाम दिया है जिसका मूल अवयव विश्व कल्याण है।

विश्व की तमामसंस्कृतियां जहां पहले खुद के विकास एवं निर्माण की बात करती है, वहीं भारतीय संस्कृति का विश्व कल्याण का तत्व उसे सर्वोत्तम एवं प्राचीनतम बनाता है। भारतीय संस्कृति के स्वरूप को और अधिक प्रख्यात और विख्यात करने के लिए परम्परागत माध्यमों एवं साहित्य का बड़ा महत्व रहा है। वैदिक काल में वेदों का निर्माण एवं उनका प्रचार प्रसार इस बात को साबित करता है। आजादी प्राप्ति तक भी प्रेसखानों का मूल उद्देश्य जहां आजादी प्राप्त करना था, वहीं भारतीय संस्कृति के तत्वों को प्रचारित और प्रसारित करना भी था, क्योंकि किसी भी संस्कृति के तमाम तत्वों में जनमाध्यम एक तत्व माना जा सकता है। प्रो. जवरीमल पारख ने इसे जनसंचार माध्य़म मानव भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति यथार्थ के निर्माण और पुनः निर्माण सूचना शिक्षा और मनोरंजन प्रदान करने वाले उत्पादों का निर्माण और संप्रेषण का तकनीकी माध्यम ही नहीं है बल्कि स्वयं में एक सांस्कृतिक उत्पाद है और इस रूप में जनमाध्यमों को संस्कृति का अंग है माना है।

अतः यह भाव विरक्त नहीं है, बल्कि जनसंचार माध्यम को संस्कृति का ही मूल अंग मानता है। परंतु मौजूदा मीडिया या यूं कहें कि जनसंचार माध्यम खुद को संस्कृति का अंग मानना तो दूर संस्कृति और सभ्यता की बात तक करने में हिचक महसूस करने लगे हैं। इसी हिचक, इसी लाचारी, इसी मिलावट और इसी षड्यंत्र को समझना बेहद आवश्यक है। भारतीय संस्कृति के प्रखर उपासक विद्वान ‘स्वामी करपात्री जी महाराज’ ने गंगा जी की परिक्रमा की और महान ज्ञाता बन गए, जिसके बाद वो मध्य प्रदेश के गांव में उपदेश के दौरान वो बात कह गए जो भारतीय संस्कृति की विश्व कल्याणकारी भाव को स्पष्ट करता है। उन्होंने कहा कि ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सदभावना हो और विश्व का कल्याण हो।‘

भारतीय संस्कृति का यह विश्वकल्याणकारी भाव इसके बाद मूल तत्व के रुप में उभरा, जिसमें धर्म की व्याख्या पुण्य के रुप में की गई है, जिसमें दान, प्रेम, स्नेह, आदर सत्कार, सहानूभूति, परोपकार, जरुरतमंद की मदद के रूप में देखा जा सकता है। अधर्म की जो बात कही गई उसमें मानवता में पनपे किसी भी तरह के पाप को नाश को स्पष्ट करता है। प्राणियों में सद्भावना का आशय यहां मानव का जीवों के प्रति उस पर आश्रित हर प्राणी के प्रति सद्भावना रखने से है और अंत में स्वामी करपात्री जी महाराज ने विश्व का कल्याण कहकर इस बात को साबित किया है कि भारतीय संस्कृति न तो किसी जाति, संप्रदाय, वर्ग, कबीले, धर्म, फिरके, समूह और सीमाओं की बात करती है बल्कि विश्व कल्याण भारतीय संस्कृति का ध्यैय और मूल मंत्र है।

विश्व की अन्य संस्कृतियों ने सबसे पहले स्वयं को बचाने और विकसित करने की कल्पना की है लेकिन भारतीय संस्कृति ने ‘उदारचरित्रानां तु वसुधेव कुटुम्बकम्’ कह कर पूरे संस्कार को कुटुम्ब अर्थात परिवार की संज्ञा दी है न कि सीमाओं की बात कहकर बांटने की कोशिश की है। यह बात यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि भारतीय संस्कृति ‘सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामया, सर्व भद्राणि पश्यंतु मां कश्चित् दुख भाग् भवेत्’ अर्थात जग में सुंदर सभी हो, सब को अच्छा स्वास्थ्य मिले, जीवन में सुख पावे प्राणी, नहीं किसी को दुख मिले की कल्पना करने वाली ब्रह्मांड की एक मात्र संस्कृति है जो सब को सुखी देखने और दुख को हरने की कल्पना करती है। यह मानती है कि सब कुछ एक ही शक्ति से चलायमान है, जो विश्व को सर्व कल्याण की राह दिखाता है जिसको साबित करते हुए कहा जा सकता है कि ‘एक नाम ओंकार ने रचा सकल ब्रमंड, तीन लोक चौदह भवन, सात द्वीप, नौ खण्ड, सात द्वीप, नौ खण्ड में एक नाम प्रधान। यही तत्व ब्रह्मांड के अलग-अलग हिस्सों को एक रूप में देखने की परिकल्पना भारतीय संस्कृति को सर्वोत्तम साबित करती है। जहां भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम् परिवार और कुटुम्ब की परिकल्पना है वहीं वैश्विकरण या यूं कहें ग्लॉब्लाइजेशन, व्यापार और धंधा करने की कल्पना मात्र है। इन सब बिंदुओं को जानने के बाद और मौजूदा सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण करने के बाद ऐसा लगता है कि जो संस्कृति विश्वकल्याण और विश्व बंधुत्व की बात करती थी और वह खंडित क्यों हो रही है? उसके निहित कारक क्या है? वो क्या हैं जो संस्कृति को उसके तत्वों से तोड़ रहा है? इसे समझना यहां बेहद आवश्यक है।

संसार की कोई भी सभ्यता तभी नामचीन हो पाई जब वहां का सूचना प्रवाह सकारात्मक पाया गया अर्थात् किसी समाज का निर्माण तभी हो सकता है, जब वहां का सूचना प्रवाह विकास की बात करे। किसी समाज को भीतर तक जानना हो तो उसके सूचना के आदान प्रदान को अथवा उसकी विषयवस्तु को जानलेना, उसके सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टिकोण को साबित कर देता है। यही कारण हैं कि आज भारतीय संस्कृति अवसाद से ग्रसित है, क्योंकि भारतीय मीडिया अब उसके विघटनकारी षड्यंत्र का उपकरण सा बनता जा रहा है।

कभी संस्कृति एक ‘बीट’ हुआ करती थी। आज मीडिया समूह से यह समाप्त हो चुकी है। संस्कृतिकर्मी नदारद है। यदा-कदा संस्कृति पर कोई लिखता भी हैं तो आज उसे किसी खास पंत का कहकर संबोधित किया जाने लगा है। इस बात को बल देते हुए वरिष्ठ पत्रकार ‘आलोक मेहता’ ने कहा कि अगर हम अपने अखबारों पर नजर डाले खास कर हिंदी के तो उसमें संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों की रिपोर्टिंग या तो नदारद होती है या सतही और उबाऊ होती है। इसी वजह से संस्कृति की जो थोड़ी बहुत रिपोर्टिंग होती हैं उसे समान्य पाठक बहुत रूची से पढ़ता भी नहीं है। सुधीश पचौरी इसे सांस्कृतिक साम्राज्यवाद बताते हुए कहते हैं कि पुराना सामाज्यवाद उद्योग आधुनिकता बाइबिल, बंदूक पर निर्भर था। नव साम्राज्यवाद तकनीकी क्रांति, सूचना क्रांति और उपभोगता क्रांति पर निर्भर है। बाइबिल और बंदूक इन्हीं में अंर्तभुक्त है। पुराना साम्राज्यवाद यूरोप केंद्रित था नया अमेरिका केंद्रित है। पुराना देशज था यह बहुराष्ट्रीय निगमों का है। यह चिंता भौगोलिकरण में हर बात को व्यापार से जोड़ने और अपना हित साधने की ओर इशारा करती है, जिसमें विश्व कल्याण बहुत दूर छूट गया है।

कथित सूचना क्रांति ने भारतीय समाज के सूचना प्रवाह को दूषित प्रदूषित कर दिया है। जहां यह भेद करना कठिन हो गया है कि भारतीय जनसंचार माध्यमों में कौन सी सूचना निर्माण करती हैं और कौन सी विघटन। मीडिया का नया रूप देखने को मिल रहा है जो मिशन से कमिशन की ओर अग्रसर है। भारतीय मीडिया जिसे मिशन की उपज कहा जाता था आज कमिशन उपजा रहा हैं, जिसमें संस्कृति दूर छूट चुकी है। मौजूदा मीडिया सूचना की राह से संस्कृति में मिलावट का उपक्रम नजर आने लगा है जिसे चंद प्रभुत्वशाली वर्ग मिलावटी बना रहे है और अपनी विचारधारा थोप रहे है। संचारविद् मानते है कि किसी देश के संचार माध्यम प्रायः वहां के प्रभुत्वशाली वर्ग की विचारधारा, संस्कृति और जीवनशैली को समूचे देश और समाज की विचारधारा के रूप में प्रचारित और प्रसारित करते है। वह अपने समाज के तमाम वास्तविकता को छिपाते हैं।

अयथार्थ को यथार्थ के रुप में प्रस्तुत करते है।‘ यहां वास्तविकता को छिपाने का अर्थ संस्कृति के मूल स्वरूप के छिपाने से है, जिसमें चंद प्रभुत्वशाली वर्ग मिलावट कर अपनी संस्कृति थोप रहे है। मौजूदा क्रांति को सचमुच संचारक्रांति कहना उचित होगा। परंतु यह क्रांति मानव समाज,अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, संस्कृति, समाजिक रिश्तों, पारिवारित रिश्तों और मानव के बाह्य जगत पर तो प्रभाव डाल ही रही है साथ ही असंतुलन पैदा कर रही है। प्रो. सुभाष घूलिया इस क्रम में कहते हैं कि भारतीय जनसंचार माध्यमों की आड़ में एक खास तरह की विचारधारा, एक खास जीवन शैली और संस्कृति को सर्वमान्य बनाने की कोशिश चल रही है। सूचना के क्षेत्र में जो विस्तार हुआ हैं उसका नियंत्रण उतना ही सीमित और केंद्रित हो गया है। मुट्ठी भर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और चंद पश्चिमी मीडिया सम्राट यह तय कर रहे हैं कि लोगों को क्या जानना चाहिए और क्या नहीं। वह मानते हैं कि कथित खगोलीकरण के बैनर तले संस्कृति का विघटन किया जा रहा है। जो भारतीय संस्कृति के तत्वों को प्रदूषित कर देगा। एआईजी सैलरी जुपिटर नाम से प्रसिद्ध एक विज्ञापन इसकी एक बानगी है। शुरूआत में यह विज्ञापन भारतीय संस्कारों के तहत एक बालक को बुजुर्ग महिला की मदद करते हुए दिखाता हैं, वहीं दूसरी तरफ उस षड्यंत्र की ओर इशारा करता हैं। जब बुजुर्ग महिला उस बच्चों को उसकी मदद करने की एवज में हाथ में एक रूपया थमाती है और कहती हैं कि यह तेरी पहली सैलरी है। मदद को सैलरी के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया गया। यह कोई भूल नहीं बल्कि सोची समझी साजिश है, जिसका प्रभाव इस रूप में रेखांकित किया जा सकता है कि अगर कोई बालक किसी की मदद करेगा तो वह अपेक्षा करेगा कि मदद करवाने वाला उसे रूपया देगा। यह विज्ञापन और कुछ नहीं भारतीय संस्कृति में विद्यमान मां के वात्सल्य और बालक के भाव को रूपयों से तोलने का उदाहरण है। संस्कृति और संस्कारों के इस दोहन हो खतरनाक बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार ‘स्वर्गीय प्रभाष जोशी’ ने कहा था कि एक घर में पति, पत्नि और दो बच्चे साथ रह रहे हैं।

एक टेलिविजन से काम चल रहा हैं। अगर ज्यादा से ज्यादा घरों में टीवी बेचना है तो घरों को तोड़ दो। जितने छोटो-छोटे घर होंगे उतने ज्यादा से ज्यादा टेलिविजन खरीदें जाएंगे। यही कारण हैं कि हर कस्बे, मोहल्ले में वृद्धालय खुल चुके है। कुटुम्ब दो लोगों में तबदील हो चुका है। वसुधेव कुटुम्बकम् की परिकल्पना खतरे में है और वैश्विकरण का धंधा जोरों पर है, जिसमें भारतीय मीडिया बहुत बड़ा माध्यम बन चुका है। जहां वह स्वयं नहीं जानता कि वह अपने आने वाली पीढ़ी को जड़ से विमुख करने के षड्यंत्र का हिस्सा बन चुके है। कुछ चाह कर और कुछ न चाहते हुए।

यह संकट बहुत गहरा हैं, जिसे समझना बहुत आवश्यक है। भारतीय जनसंचार माध्यम कथित एफडीआई या संपादकीय नीति के नाम पर जो कर रहे हैं वो उसकी विश्वसनीयता के लिए भी घातक साबित हो रहा है। सभी जनसंचार माध्यम लगभग विघटनकारी सूचना प्रदान कर रहे हैं। निर्माण की बात करना यह मान लिया गया है कि केवल सरकार या कुछ सगठनों का कार्य है जबकि मीडिया वह सेतु है, जो नीति निर्माताओं और नीति प्रयोगताओं के मध्य अहम कड़ी है। यह कहा जा सकता हैं कि किसी देश पर आधिपत्य या कब्जा करना हो तो वहां कि संस्कृति को विकृत करने का कार्य करो जो युरोप और अमेरिका केंद्रित नव साम्राज्यावद ने संगठित रुप में किया है, जिसमें मीडियाउपक्रम के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

इसलिए भारतीय मीडिया घटना प्रधान हो गई है। समस्या प्रधान नहीं है। कोई घटना घटती हैं तो मीडिया उसी घटना को तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करता है और समस्या की अथवा मुद्दों की बात तक नहीं करता जो उसके दोहरे चरित्र की ओर इशारा करता है। रही सही कसर अनियंत्रित बेलगाम घोड़े सोशल मीडिया ने पूरी कर दी। अब कथित सोशल मीडिया यह निर्धारित करने लगा हैं कि मुख्य धारा का मीडिया क्या दिखाएगा, छापेगा या प्रसारित करेगा। यही हैं आज का वायरल मीडिया। जो वायरल फैला रहा हैं।

संस्क़ृति के दोहन और विघटन का जहां व्यक्ति खुद में खुश हैं। खुद सेल्फी ले रहा हैं और यह इंतजार कर रहा हैं कि कितने लाइक और कमेंट मिले। यह कुछ नहीं वसुदेव कुटुम्बकम् के भाव को अकेला, निहायती अकेला और बिल्कुल अकेला करने का खतरनाक षड्यंत्र है। इसे बचाने के लिए प्रयास करना आवश्यक है। हालांकि यह प्रयास कोई मीडिया मुगल करेगा नहीं लेकिन फिर भी आशाएं हैं, संस्कृति के संरक्षण की। जहां ये सात सूत्र शायद वजूद को बनाए रखें। इसमें पहला परम्पराओं की जानने की है और युवाओं तक पहुंचाने की है। पुस्तैनी भाषा और विचारों को आत्मसात करने की, तीसरी परम्परागत नृत संगीतकला, व्यंजनों को अगली पीढ़ी को सौंपा जाना, संस्कृति और तकनीक को एक दूसरे से बांटना होगा, समुदाय एवं समाज के अन्य सदस्यों के साथ समय बिताना होगा, सामाजिक एवं राष्ट्र महत्व के उत्सवों का प्रबंधन एवं सहभागिता आवश्यक है। अंत में सस्कृति में गौरव करना और उसमें आचरन में उतारना बेहदआवश्यक है तभी भारतीय संस्कृति की विश्वकल्याण और विश्वबंधुत्व के भाव को जीवित रखा जा सकता है।

-डॉ. नीरज कर्ण सिंह (लेखक सुभारती पत्रकारिता एवं जनसंचार महाविद्यालय के प्राचार्य एवं संस्कृतिकर्मी हैं।)

News Reporter
Vikas is an avid reader who has chosen writing as a passion back then in 2015. His mastery is supplemented with the knowledge of the entire SEO strategy and community management. Skilled with Writing, Marketing, PR, management, he has played a pivotal in brand upliftment. Being a content strategist cum specialist, he devotes his maximum time to research & development. He precisely understands current content demand and delivers awe-inspiring content with the intent to bring favorable results. In his free time, he loves to watch web series and travel to hill stations.
error: Content is protected !!