; अटल बिहारी वाजपेयी : अनंत की यात्रा में विलीन पुरोधा
अटल बिहारी वाजपेयी : अनंत की यात्रा में विलीन पुरोधा

जन-जन के हृदय में अपना महान स्थान बनाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी पंचतत्व में चिरकाल के लिए अनंत की यात्रा में विलीन हो गए। अटल बिहारी वाजपेयी एक व्यक्ति नहीं बल्कि अपने-आप में एक ऐसी महान संस्था थे जो गंगा की तरह हिमालय की विभिन्न नदियों और धाराओं को अपनेपन से समाहित कर जीवन के संघर्षों से तपकर सागर की तरह अथाह हो गए। ये अथाह सागर अपने पीछे ऐसी अमिट छाप छोड़ गया जो प्रेरणा का अतुलनीय महान स्रोत भी है और विभिन्न विचारधाराओं को सम्मान करने वाला विराट मन-मस्तिष्क भी है।

वे राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के संकल्प के साथ राजनीति में कूदे और उसका प्रकटीकरण व परिस्थितियों के मुताबिक नवीनीकरण भी उन्होंने समय-समय पर किया भी। उन्होंने भारतीयकरण को नई परिभाषा से गूंथा। वे मानते थे कि परायों को अपना बनाने का नाम है भारतीयकरण। परकीय को स्वकीय का स्वरूप देने का नाम है भारतीयकरण। यह कार्य अनादिकाल से चला आ रहा है और यह यज्ञ अनंतकाल तक चलेगा। जिस प्रकार भारतीयकरण का संबंध एक वर्ग से नहीं,  संपूर्ण समाज से है, उसी प्रकार भारतीयकरण की परिधि में जीवन का केवल एक अंग नहीं, समग्र जीवन आता है। राजनीति, अर्थ, शिक्षा,समाज-रचना सभी क्षेत्रों में भारतीय जीवन-मूल्यों के आधार पर नव-निर्माण करना भारतीयकरण का अर्थ है।

इस पर गहराई से विचार करते हुए उन्होंने उद्घाटित किया कि भारतीयों का भारतीयकरण करने की बात कुछ लोगों को अटपटी भले ही लगती हो, किंतु क्या यह सच नहीं है कि जन्म से भारतीय होते हुए भी मन, वचन तथा कर्म से भारतीय होने वालों की संख्या देश में उंगुली पर गिनी जा सकती है? इससे भी आगे वे कहते हैं कि कभी-कभी भारत को देखकर एक भीड़ का भ्रम होता है। भीड़ का कोई एक गन्तव्य नहीं होता, न उसका एक मन्तव्य होता है। देश की जनता को एक महान लक्ष्य तथा एक निश्चित दिशा देने का नाम भारतीयकरण। भारतीयकरण का संबंध केवल मुसलमानों से नहीं है। भारतीयकरण के अंतर्गत देश की सकल जनता आती है। भारतीयकरण का एक ही अर्थ है–भारत में रहने वाले सभी व्यक्ति, चाहे उनकी भाषा कुछ भी हो,मजहब कुछ भी हो, उनका प्रदेश कुछ भी हो, वह भारत के प्रति अनन्य, अविभज्य, अव्यभिचारी निष्ठा रखें। भारत पहले होना चाहिए, बाकी का सब बाद में।

उन्होंने अपने नाम की तरह कई क्षेत्रों में अटल रेखाएं खींची जो उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को कड़ी के रूप में जोड़ती थीं। जो कल था, वो आज नहीं और आज है, वह कल नहीं रहेगा, लेकिन मां भारती सदैव गर्व से महकनी चाहिए। वे प्रखर राजनेता के साथ कुशल प्रशासक और कवि हृदय थे। सरलता, वाक्पटुता, सहजता और प्रसन्नचित स्वभाव उनके विराट व्यक्तित्व की आभा थी। अपनी बात को सार और प्रभावी ढंग से दूसरों तक पहुंचना उनके मंत्रमुग्ध व्यक्तिव को चार चांद लगाती थी। वे मजहब के साथ राजनीति को मिलने के खिलाफ थे और मानते थे कि जब उसके आधार पर सत्ता हथियाने की कोशिश की जाती है, जब आप पृथकता को बढ़ावा देते हैं, तब सांप्रदायिकता बढ़ती है। यह सांप्रदायिकता दुधारी तलवार की तरह है। राष्ट्र की एकता को अगर मजबूत करना है तो वह राजनीतिक सौदेबाजी के आधार पर नहीं होती।

1947 में जब आजादी का जश्न मनाया जा रहा था तो वे भारत विभाजन से विचलित थे। संवेदना उनको झकझोर रही थी। जब पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था तो उन्होंने महसूस किया रक्त से रंगी हुई स्वाधीनता का दर्द। वे कराहते हुए प्रतीत होते थे भारत की अखंडता की बलि चढ़ाकर प्राप्त की गई स्वाधीनता से। हर्ष और विषाद का एक विचित्र संयोग माना था उन्होंने।

राजनीति उनकी कर्मभूमि बनी तो उनके मन में लेखन भी बसता था। राजनीति और लेखन के मिश्रित और उसके संतुलन के स्वर उनके इस कथन से झलकते हैं–‘‘मेरे भाषणों में मेरा लेखक ही बोलता है, पर ऐसा नहीं है कि राजनेता मौन रहता है। राजनेता अपने विचार लेखक के समक्ष परोसता है और लेखक पुनः विचारों को, अभ्यास के कारण पैनी अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है। यह जरूर है कि राजनेता ने लेखक से बहुत कुछ पाया है। मेरा लेखक मेरे राजनेता को वाक् संयम की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करने देता। उसकी चैकस वर्जन के कारण ही राजनेता सदैव भाषा-संयम का ध्यान रखता है। राजनेता अपने भाषण में लेखकीय अनुशासन में बंधकर चलता है।’’ साहित्य और राजनीति के मिलन को वे देष के लिए शुभ मानते हुए कहा करते थे, ‘‘जब कोई साहित्यकार राजनीति करेगा तो वह अधिक परिष्कृत होगी। यदि राजनेता की पृष्ठभूमि साहित्यिक है तो वह मानवीय संवेदनाओं को नकार नहीं सकता। तानाशाहों में क्रूरता इसीलिए आती है कि वे संवेदनाहीन हो जाते हैं। एक साहित्यकार का हृदय दया, क्षमा, करुणा और प्रेम आदि से आपूरित रहता है। इसलिए वह खून की होली नहीं खेल सकता।’’

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि उनके व्यक्तित्व में भारतमाता के भविष्य की चिंता बसती थी। वे मानते थे कि भारतीय लोकतंत्र ऊपर से जितना जीवंत दिखाई देता है, भीतर से भी वह उतना ही सबल और शक्तिशाली है। राजनीति के तेजी से बदलते स्वरूप से उनकी खिन्नता और दर्द इन शब्दों से समझा जा सकता है, ‘‘येनकेन प्रकारेण सत्ता हथियाना और हथियाने के बाद जैसे भी हो उसे बनाए रखना, यही राजनीति का चरम लक्ष्य रह गया हैं। सत्ता के लोभ से प्रेरित होकर राजनीतिक दल विघटन को बढ़ावा देने में भी संकोच नहीं करते, यहां तक कि राष्ट्रविरोधी तत्वों से भी सांठ-गांठ करने से बाज नहीं आते।’’

भाषणों और वक्तव्यों में उनके मुखारविंद से बातें कई बार सूक्तियों के तरह झलकती थी। देश, राष्ट्र, संस्कृति, धर्म,अध्यात्म, नैतिकता, साहित्य, शिक्षा, पुरातन गौरव, हिंदी और लोकतंत्र पर उन्होंने ऐसे तथ्यपरक और मजबूत मंतव्य कई बार व्यक्त किए। उदाहरण के लिए नैतिकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने बड़ी बात कही–इंसान बनो, केवल नाम से नहीं, रूप से नहीं, शक्ल से नहीं, हृदय से, बुद्धि से, संस्कार से, ज्ञान से। मनुष्य जीवन अनमोल निधि है, पुण्य का प्रसाद है। हम केवल अपने लिए न जिएं, औरों के लिए भी जिएं। जीवन जीना एक कला है, एक विज्ञान है। दोनों का समन्वय आवश्यक है।

मौत के सन्दर्भ में काफी पहले पूर्वाभास के ये शब्द उनके व्यक्तित्व को खुद कहते हैं—मैं क्या कहूँ जो मौत का नाम सुनते ही मुरझा जाते हैं| उनके साथ मेरी पूरी सहानुभूति है| वैसे भी मैंने मौत को निकट से देखा है| कल यदि आकर मेरे द्वार पर दस्तक में उनके चिंतन की राह, अभिव्यक्ति की शैली और जीने का अंदाज मानवता के मूल्यों को दे तो मैं उसी क्षण उसके साथ चल खड़ा हूँगा| एक बार भी मुड़कर नहीं देखूंगा| किन्तु यदि मृत्यु मेरे साथ खेल करेगी, जैसा बिल्ली चूहे के साथ करती है तो मैं उससे लडूंगा, आखिरी दम तक दो-दो हाथ करूँगा| लगता है जब से उनका 8-10 साल पूर्व उनका स्वास्थ्य ज्यादा ख़राब हुआ तो मौत दबे पांव उनके साथ खेल करती रही और वे उससे लड़कर दो-दो हाथ करते रहे और जब मौत ईमानदारी से उन्हें लेने आई तो वो उसके साथ नि:शब्द होकर चले गए| वे बेबाक और निर्विवाद जिए और हमारे बीच से बेदाग होकर चले गए|    

यह कटु सत्य है कि अटल जी सब के है और सब उनके रहेंगे। उनके जैसे विराट व्यक्तित्व के धनी न तो आज समाज में हैं और न ही राजनीति में उनके समरूप कोई ऐसा महामानव मिलता है जिसके विरोधी भी कायल हों। वे सत्य को सहजता से स्वीकारते रहे और सहजता को उन्होंने सत्य के साथ अभिव्यक्ति दी। आज वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके दिखाए मार्ग,विचार और सोचने का ढंग हमें निरंतर उदार और सहज बनाने की प्रेरणा देता रहेगा। कविताओं के माध्यम से तो उन्होंने अपने अंतर्मन की वेदना-संवेदना को बेपर्दा किया है।

जिन लोगों ने सीधे उनके साथ काम करने का सौभाग्य पाया, वे आज भी उनके साथ अपनी नजदीकी के गीत गाते हुए आनंद की अनुभूति करते हैं, एक तरह का संतोष और गर्व महसूस किये बिना नहीं रहते। सौभाग्य से एक गांव के व्यक्ति के रूप ऐसे महान व्यक्तित्व के साथ नजदीकी से काम करना मेरे लिए गर्व व गौरव की बात है। वे मां भारती के सच्चे सपूत हैं। उदार मन से किसी को स्वीकारना उनकी सहजता का जीवंत उदहारण है जो विरोधी को भी उनकी तरफ खींचते हुए प्रशंसक बनाये बिना नहीं रहता। तेजी से बदलते आज के राजनीतिक दौर में उनके जैसा बड़ा व्यक्तित्व होना असंभव-सा लगता है। वे कहा करते थे कि बड़ा होना मुश्किल है, पर उससे भी ज्यादा मुश्किल है बड़ा होकर बड़ा रहना।

वे भारतीय राजनीति के अजातशत्रु की तरह याद दिए जायेंगे| सधी भाषा, रौचक शैली, यथार्थपूर्ण तर्कशक्ति, जमीनी समझ, हाजिरजवाबी, सूझ-बूझ की दूरदृष्टि, कूटनीतिज्ञ कौशल, कुशल प्रशासक जैसे गुण उनको महामानव बनाते हैं| बेबाक चिंतन की राह, निर्भीक अभिव्यक्ति से सज्जित बेलाग शैली और जीने का अंदाज, मानव मूल्यों की लम्बी परम्परा के निर्वहन से परिपूरित रौशनी हमारे दिलोदिमाग को सदा गुलज़ार करती रहेगी| वो ज्योति अभी बुझी नहीं, जली है; उनकी आत्मा का हंस उड़ गया है और हम उनके व्यक्तित्व की रोशन आभा को सदा देदीप्यमान होते देखते रहेंगे। अलविदा की इस घड़ी में शब्द कहाँ से खोजें जिनको श्रद्धांजलि देने के लिए दिल भर आता है, कलम रूक जाती है| उनके ये शब्द गूंजते हैं–”मैं जी भर जिया, मैं मन से मरुँ| लौटकर आऊंगा, कूच से क्यूँ डरूं|” ये महज उद्गार नहीं, बल्कि उनके पुरोधा होने के जीवन प्रमाण है|

लेखक -राजेंद्र प्रसाद (पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी जी समेत कई केंद्रीय मंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं राजेंद्र प्रसाद | पानीपत जिले के गांव छाजपुर खुर्द निवासी राजेन्द्र प्रसाद अतीत में पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल विहारी वाजपेयी जी के साथ व्यक्तिगत रूप से उनके कार्यालय में बतौर निजी सहायक व निजी सचिव काम कर चुके हैं। फिलहाल वे केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री शिव प्रताप शुक्ल के कार्यालय में प्रधान निजी सचिव के रूप में कार्यरत हैं। वे उनके साथ देश/विदेश की कई यात्रा कर चुके हैं। वे आखिर बार अटल जी से 2011 में मिले जब वे काफी बीमार थे।)

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