; राहुल के तीखे तेवर, सियासी ‘राफेल‘ पर सवार रहेगी कांग्रेस
राहुल के तीखे तेवर, सियासी ‘राफेल‘ पर सवार रहेगी कांग्रेस
तीन राज्यों में सत्ता गंवाने के बाद राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बीजेपी के खेमे में खुशी की लहर है। सर्वोच्च अदालत के बाद संसद से लेकर सड़क तक बीजेपी के नेता व मंत्री कांग्रेस के आड़े हाथों लेते दिखे। संसद में भी सरकार ने विपक्ष को राफेल मामले में बहस की चुनौती दी है।  भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस के मुखिया राहुल गांधी को राफेल मामले में झूठी बयानबाजी करने और ‘चैकीदार को चोर’ कहने के लिये माफी मांगने को कहा है। राहुल गांधी ने भी पलटवार करते हुये कहा कि इस मामले में जांच कराई जाएगी तो भारत के प्रधानमंत्री का सच उजागर होगा। हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री के अनिल अंबानी दोस्त हैं और चैकीदार चोर है। राफेल को लेकर सरकार और कांगे्रस पिछले काफी समय से आमने-सामने हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कांग्रेस के लिए सैटबैक समझा जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि निर्णय के बाद कांग्रेस ‘बैक फुट’ पर चली जाएगी, लेकिन राहुल गांधी के ताजा तेवरों से यह साफ हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट भले ही कोई फैसला सुनाये, कांग्रेस सियासी मुनाफे और मोदी सरकार को घेरने के लिये राफेल मामले में अपने तेवर तीखे ही रखेगी। जानकारों की माने तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देने की बजाय अपना पल्ला झाड़ने का काम किया है। तो वहीं भाजपा और कांग्रेस ने अपने सियासी नफे-नुकसान के हिसाब से इस फैसले के रोशनी में राफेल की लड़ाई को ‘सत्य की जीत’ बनाम ‘चैकीदार चोर है’ बना दिया है।
राफेल मामले में सिविल सोसायटी के जो लोग कोर्ट के समक्ष याचिका लेकर गए थे, उन्होंने अपने सीमित संसाधनों के जरिए तथ्य एकत्रित किये थे। यदि अदालत को प्रथम दृष्टतया ऐसा प्रतीत होता कि जांच के बाद ही सारे तथ्य सामने आएंगे, तो जांच होनी चाहिए थी। कोर्ट ने यह तो कह दिया कि जांच की जरूरत नहीं लग रही है। परंतु उसने संदेह के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ऐसी टिप्पणियां की है, जिनसे यह प्रतीत होता है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। दरअसल, यहीं अदालत के निर्णय में विरोधाभास है। क्या हिंदुस्तान की शीर्ष अदालत अब न्यायिक सक्रियता के अपने आधुनिक रवैये को छोड़ने वाली है? इस पूरे निर्णय और न्यायिक प्रक्रिया में जो ‘स्पेस’ है, उसी को कांग्रेस अपने सियासी मुनाफे के तौर पर भुनाने में दोबारा जुट गयी है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि विपक्ष साढ़े चार साल के मोदी सरकार के कार्यकाल में एक भी ऐसा मुद्दा नही उठा पाया जिससे वो उसे घेर पाता। मुद्दाविहीन विपक्ष खासकर कांग्रेस ने राफेल के मुद्दे को इस तरह पेश किय कि मोदी सरकार ने अपने चेहते उद्योगपतियों की जेब भरने के लिये देश के खजाने से तीस हजार की लूट की है। राहुल गांधी के प्रधानमंत्री को चोर कहने और तीस हजार की लूट के पीछे क्या सच्चाई है, ये तो पता नहीं है। लेकिन जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले से जुड़ी याचिकाओं को खारिज करते हुये सरकार को ‘क्लीन चिट’ दी है, उससे कांग्रेस के आरोप और बयानबाजी पर सवालिया निशान खड़े हो गये हैं। ऐसे में सवाल यह हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कोई तकनीकी खामी है?
वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में जो फैसला आया है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस पूरे मसले से पल्ला झाड़ लिया है। जिन महत्वपूर्ण बिंदुओं के संदर्भ में रॉफेल डील की प्रकिया पर सवाल उठाए जा रहे थे, उनमें से कई पर आप सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी देखिए। विमान की कीमत का मसला संदेह के बिंदुओं में से एक था। कोर्ट ने यह नहीं कहा है कि पुरानी डील के मुकाबले नई डील में विमान की कीमत का बढ़ जाना तर्कसंगत लगता है। न्यायालय ने कहा है कि हम प्राइज कम्पेयर करने के लिए नहीं बैठे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में संदेश का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह था कि जब वायुसेना को 126 विमानों (7 स्क्वॉड्रन) की जरूरत थी, तो अचानक से सरकार ने खरीदे जाने वाले विमानों की संख्या को घटाकर 36 (2 स्क्वॉड्रन) कैसे कर दिया। इस पर भी कोर्ट ने यही कहा है कि हम सरकार की बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं उठा सकते हैं।वहीं इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इस फैसले पर विरोध जताते हुए एक प्रेस नोट जारी कर इस फैसले को शॉकिंग बताते हुए बिंदुवार तरीके से आपत्ति जताई है।
शीर्ष अदालत ने यह तो कहा है कि मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि इस रक्षा सौदे में प्रकिया का पालन हुआ है। लेकिन वह यह नहीं कह सका कि इस पूरी प्रकिया में डिफेंस प्रोक्योरमेंट पॉलिसी का शत-प्रतिशत पालन किया गया है। क्या अदालत यह मानती है कि प्रधानमंत्री को रक्षा खरीद प्रकिया में अपने विवेक से फेरबदल करने का अधिकार है? यह तथ्य तो सरकारी दस्तावेजों से साफ होता है कि प्रधानमंत्री के डील साइन करने के बाद उसे केबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) सहित तमाम जरूरी फोरम्स पर मंजूरी दी गयी। अदालत ने यह टिप्पणी की है कि हमें देश की सुरक्षा के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। इस मान्यता को लेकर तो कोई दो मत नहीं है। लेकिन क्या कोर्ट यह मानता है कि जिस भी विषय में राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न सम्मिलित हो, उसके सम्बंध में सरकार को स्वविवेक से निर्णय लेने का अधिकार है और उस मामले में प्रक्रियागत खामियों को लेकर कोई सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं?
पिछले कई महीनों से कांग्रेस और राहुल गांधी राफेल लड़ाकू विमान सौदे पर सवाल खड़े करते आ रहे हैं।उनका आरोप है कि संप्रग सरकार के समय विमान की तय कीमत के मुकाबले मोदी सरकार ज्यादा कीमत अदा कर रही है। उनका आरोप यह भी है कि इस सौदे में ऑफसेट साझेदार के तौर पर हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को उपेक्षित रखा गया और रिलायंस डिफेंस को फायदा पहुंचाया गया है। सवाल यह भी है कि अगर राहुल गांधी या कांग्रेस के पास राफेल मामले में हुई गड़बड़ी से जुड़े दस्तावेज हैं तो वह इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पार्टी क्यों नहीं बनें? सवाल यह भी है कि विपक्ष संसद में इस मामले में बहस से क्यों बच रहा है? क्या राहुल गांधी राफेल मामले में सियासी लाभ के लिये देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं? क्या मोदी सरकार ने सचमुच देश के खजाने को लूटा है?  देश की जनता इन तमाम सवालों का जवाब जानना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के साफ फैसले के बाद जिस तरह कांग्रेस ने मोदी सरकार पर दोबारा हमला बोला है, उससे अप्रत्यक्ष तौर पर  सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता और प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा है। वहीं किसी ठोस सुबूत के देश के प्रधानमंत्री को चोर कहकर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ठेस पहुंचाने का काम किया।
राफेल मामला को महज रक्षा सौदे मानना भूल होगा। असल में राफेल अब एक राजनीतिक मुद्दा है। और एक ऐसा मुद्दा जिससे मोदी सरकार को कांग्रेस घेर सकती है। पंाच राज्यों के चुनाव में राफेल के मुद्दे पर कांग्रेस ने सियासी मुनाफा कमाया है। यदि इस पूरे विवाद को राजनीति के दृष्टिकोण से देखा जाय, तो सार्वजनिक बहस में इस मसले को जीवित रखने वाली कांग्रेस ने पूर्व में भी कई बार यह कहा कि सुप्रीम कोर्ट यह तय करने का सही फोरम नहीं है कि इस रक्षा खरीद में कोई गड़बड़ी हुई है या नहीं। इसके लिए  संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित होनी चाहिए। इस बात की भी क्या गांरटी है कि जेपीसी की जांच से कांग्रेस संतुष्ट हो जाएगी? क्या जेपीसी की जांच के बाद कांग्रेस किसी नयी जांच की मांग नहीं करेगी इस बात की गांरटी कौन देगा?
हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के बाद कांग्रेस का उत्साह सातवें आसमान पर है। ऐसे में बीजेपी पर संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का आरोप लगाने वाली कांगे्रस सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को हवा में उड़ाने पर आमादा है। सच्चाई यह है कि मुद्दाविहीन कांग्रेस व विपक्ष को आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को घेरने के लिये राफेल के अलावा कोई दूसरा ठोस मुद्दा सूझ भी नहीं रहा है। कांग्रेस के सामने ताजी चुनौती तीन राज्यों में चुनावी वायदे पूरी करने की भी है। जिसमें किसानों से किये वायदे खास हैं। वहीं अगस्ता वैस्टलैंड मामले में मिशेल की गिरफ्तारी ने भी कांग्रेस की चिंताएं बढ़ायी हैं। कांग्रेस को राफेल मुद्दे में सियासीतौर पर मुनाफा ही मुनाफा दिख रहा है। आने वाले दिनों में चौकीदार चोर है’ और ‘सत्य की जीत’ तेज शोर शोर-शराबा सुनाई देगा और इस कोलाहल व लड़ाई में तमाम बुनियादी, जरूरी व असल मुद्दे छिप जाएंगे।
-आशीष वशिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार लखनऊ, उ0प्र0
News Reporter
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