; जलसंकट से मानवजीवन के ख़त्म होने का इंतजार कर रही हैं सरकारें : राजेन्द्र सिंह
जलसंकट से मानवजीवन के ख़त्म होने का इंतजार कर रही हैं सरकारें : राजेन्द्र सिंह

गत दिनों विश्व पर्यावरण दिवस पर विभिन्न राज्यों की सरकारों और संस्थाओं ने पर्यावरण पर घडि़याली आँसू बहाए और पर्यावरण को लेकर तमाम तरह की कसमें खाईं। लेकिन किसी तरह का कोई ठोस कदम किसी भी स्तर पर नही उठाया गया। पर्यावरण दिवस सिर्फ़ एक सरकारी प्रोग्राम बन कर रह गया है। धरती की तपिश दिनोंदिन बढ़ रही है। मानव अस्तित्व लगातार विनाश की तरफ बढ़ रहा है। ऐसे में अगर हमने पर्यावरण को सहजने के प्रयास नहीं किए तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा वजूद ही खतरे में पड़ जाएगा।पर्यावरण को बचाने के लिए सरकारें कागजी वायदे खूब करती हैं लेकिन धरातल पर कुछ नहीं! प्रकृति की रक्षा कोई भी ईमानदारी से नहीं करता। जल, धरती व आकाश को बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए इस मुद्दे पर नमामि भारत के कंसल्टेंट एडीटर रमेश ठाकुर ने जलपुरूष कहे जाने विख्यात पर्यावरणविद् राजेंद्र सिंह से बातचीत की। पेश बातचीत के मुख्यअंश।

पर्यावरण के दूषित होने का मुख्य कारण क्या देखते हैं आप?

धरती का सीना चीरकर गगनचुंभी ईमारतें बनाई जा रही है। धरती की कोख को फाड़कर पानी निकाला जा रहा है। पर्यावरण को संरक्षित के जगह असंरक्षित किया जा रहा है। ये मुख्य कारण पर्यावरण के दूषित होने का। हम दशकों से चीख-चीखकर कह रहे हैं इसे रोको। नहीं तो धरती कभी भी अपना रोद्र रूप दिखाकर हम सबों को उसमें समा लेगी।

केन्द्र सरकार आखि़र क्यों चिंतित नही है लगातार नीचे खिसकते जल स्तर से ?       

चापाकल और छोटे-बड़े बोरवेल लगाकर भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है उससे जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। इसलिए सघन रूप से छोटे-बड़े बांध, बड़े-बड़े तालाब, बड़े-बड़े कुएं और बाबड़ियां बनाकर इस समस्या का निदान किया जा सकता है। इससे जलस्तर भी उचित लेवल पर बना रहेगा। चूंकि जल संचय और उसके विकेंद्रीकरण के नजरिए से भी सरकारी स्तर पर समुचित और संतुलित कदम नहीं उठाया गया, इसलिए भारत बेपानी होता जा रहा है। हम सरकारों को रोकने के उपाय बतातें हैं, पर कोई माने तो।

जलसंकट के समुचित समाधान हेतु वैश्विक संस्थाएं कितनी मददगार हो सकती हैं?

देखिए, इस बात की उम्मीद ना के बराबर है क्योंकि भारत की अपेक्षा शेष दुनिया का जलसंकट ज्यादा भयावह है, विशेषकर मध्य एशियाई और अफ्रीकी देशों का। उदाहरण के तौर पर, सीरिया में कोई धर्मयुद्ध नहीं हो रहा, बल्कि टर्की द्वारा अपने इक्वेट्स नदी के जलप्रवाह पर बांध बना देने से सीरिया में जो कृत्रिम जलसंकट कायम हुआ, उससे वहां की खेती चैपट हो गई, जबकि वहां की खेती भारत से भी दो हजार वर्ष पहले शुरू हुई थी। यही वजह है कि सीरिया के लोग अपना देश छोड़कर लेबनान, टर्की,ग्रीस, स्वीडन और जर्मनी की ओर रुख किए। देखा गया कि जर्मनी ने ऐसे लोगों के लिए अपनी जगह खोल दी, जबकि अमेरिका समर्थक देशों ने उनके लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए, जिससे प्रभावित लोग क्षुब्ध और आक्रामक हुए। हालांकि भारत में भी जलसंकट है लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं आई है कि लोग देश

छोड़कर चले जाएं। हां, यहां के लोग एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं,क्योंकि उनके राज्य में भी खेती हेतु उपयुक्त जल प्रबंधन का अभाव है जिसका असर अन्य रोजगार धंधों पर भी पड़ता है। इसलिए भारत को अपने जलसंकट का समाधान खुद ही करना होगा। इस दिशा में किसी भी विदेशी संस्था की अपेक्षित मदद नहीं मिलने वाली है।

क्या किसी और कारणों से जलसंकट की समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता?

पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की मौजूदा प्रवृति बहुत खतरनाक है। ये सबकी साझी सम्पत्ति को अपने निहित स्वार्थों के लिए निजी कम्पनियों को सौंपने का खेल है, और कुछ नहीं। इससे पानी के निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा जो अनुचित होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का आदर्श उदाहरण राजतंत्र में मिलता था। तब राजा अपनी जमीन देता था और जनता अपनी कड़ी मेहनत से उस जमीन पर तालाब खोदती थी, छोटे-बड़े कुएं और बावड़ियां बनाती थी ताकि जो जलसंचय हो, उससे बाद में काम लिया जा सके। तब राजा ऐसे कार्य में सहयोग करने वाले व्यक्तियों को हलवा-पूड़ी और खीर-पूड़ी भी खिलवाता था जिसे पुण्य कार्य समझा जाता। यही नहीं, निर्माण कार्य में लगने वाले अन्य जरूरी सामानों की कीमतें भी प्रदान करता था। वह पवित्र भावना थी जो एक दूसरे को जोड़े रखती थी, लेकिन वह नेकनीयती अब कहां? इसलिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की जगह सरकार को अपने संसाधनों से यह कार्य करना चाहिए, क्योंकि जल ही जीवन है।

जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए और क्या किया जाना चाहिए?

सदियों से भारत में पानी का बहुत सम्मान रहा है। लोगों ने हमेशा इस बात का ख्याल रखा कि पानी में हमारी गन्दगी नहीं मिले। क्योंकि भारतीय संस्कृति में नदी, तालाब और कुएं भी पूजनीय हैं। मैं जब ग्यारह साल का था तो अपनी अनपढ़ दादी के साथ गंगा स्नान करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर गया था। तब उन्होंने थैले से लोटा निकला, मेरे कपड़े उतारे और सिर पर पानी के छींटे मारे। क्योंकि पुराने लोग हमेशा इस बात को लेकर भी सजग रहते थे कि नदियों में या उसके आसपास में किसी भी प्रकार के शौच कार्य से परहेज किया जाए।

इस मसले पर केंद्र और राज्य सरकारों से आपको किसी तरह की उम्मीदें हैं?

सरकार को इस वक्त बढ़ती बाढ़ और सुखाड़ की समस्या का स्थायी समाधान करने की दिशा में एक सार्थक पहल करनी चाहिए। मेरे विचार से वर्षा जल को संचय करके उसके विकेंद्रीकरण का कार्य करना चाहिए। इसके लिए सिर्फ ठेकेदारी प्रथा पर निर्भर रहना और पसंदीदा कम्पनियों के लाभ के नजरिए से ही कार्य करना उचित नहीं है, बल्कि जल संचय की जरूरत, विशेष भौगोलिक परिस्थिति के अनुकूल डिजाइन और समुचित इंजीनियरिंग का अनुप्रयोग इस हिसाब से करना चाहिए जो सबके लिए अनुकूल हो, क्योंकि फिलवक्त ऐसा नहीं है।

जल के सामुदायिक विकेंद्रीकरण में क्या खामियां देखते हैं?

जल के सामुदायिक विकेंद्रीकरण के कार्य को सिर्फ इंजीनियरों और ठेकेदारों के हाथों में नहीं

छोड़ा जाना चाहिए। ऐसा इसलिए हुआ कि हमारे नेताओं ने कभी भी इसमें अपनी गहरी अभिरुचि नहीं दिखाई, जिससे हरेक क्षेत्र में समावेशी जल विकास कार्य सम्भव नहीं हो पाया। यही वजह है कि विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बड़े-बड़े बांध (डैम) तो बनाए गए, जलविद्युत भी पैदा की गई, पेशेवर विकास के अन्य उपाय भी किए गए, लेकिन उसका पूरा लाभ देश के सभी लोगों को एक समान रूप से नहीं मिल पाया। क्योंकि छोटे-छोटे बांध नहीं बनाए गए। छोटे-बड़े तालाबों, कुएं, बाबड़ियों की समुचित उपलब्धता पर बहुत कम ध्यान दिया गया।

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(विगत दिनों रमेश ठाकुर से दिल्ली में जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने जैसा कहा)

 

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