; 84 कोशीय परिक्रमा-जहाँ इन्द्र को दान में मिलीं दधीचि की अस्थियाँ
84 कोशीय परिक्रमा-जहाँ इन्द्र को दान में मिलीं दधीचि की अस्थियाँ

नैमिष शुक्ल।” मोक्ष की कामना को लेकर देश के कोने कोने से परिक्रमार्थी 84 कोशीय परिक्रमा नैमिषारण्य तीर्थ सें श्रद्धालुओं का आज से पहले पड़ाव से परिक्रमा मेले का भारी अव्यवस्थाओ में शुभारंभ हो गया है ।”उत्तर प्रदेस के सीतापुर जनपद में विश्व विख्यात मिश्रिख वृह्द मेला महर्षि दधीचि के द्वारा प्रारम्भ की गई चौरासी कोसीय परिक्रमा मेला जो कि पूरे देश की सबसे प्राचीन व बड़ी परिक्रमा में से एक हैं यहाँ पर परिक्रमार्थियों के लिए यह श्रद्धा और आस्था के केंद्र के रूप में भी जाना जाता हैं ये परिक्रमा अपने आप मे मोक्ष के सागर के समान हैं जिसमे मोक्ष की कामना को लेकर श्रद्धालु द्वारा डुबकी लगाने का सिलसिला आज से ही नही पुरातन से चला आ रहा हैं ”

प्राचीन काल से वर्णित इतिहास में ” सतयुग मे महा भयंकर कुकर्मी वृत्तासुर राक्षस हुआ था जो देवताओं और ऋषियो को आये दिन अत्यधिक परेशान किया करता था जिसको मारने के लिये लिए देवताओं , ऋषियों ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की थी तब भगवान विष्णु ने बताया था कि जिस शस्त्र से वृत्तासुर का वध हो सकता था वह शस्त्र महर्षि दधीचि जी के पास है क्योकि जब परसुराम को तपस्या करने जाना था तब वह अपने धनुष को महर्षि दधीचि को दे दिया था जब ऋषि और देवतागण महर्षि दधीचि जी के पास गए और अपनी समस्या को बताया तब महर्षि ने कहा कि हमने उस पिनाक को पत्थर पर घिसकर पी लिया है लेकिन उसका प्रभाव मेरी हड्डियों में उपस्थित हो गया है इस कारण तब देवताओं के राजा इंद्र ने महर्षि को अस्थि दान करने के लिए निवेदन किया जिस पर महर्षि दधीचि जी तैयार हो गये पर एक शर्त रखते हैं कि अस्थि दान करने से पहले मैं सभी तीर्थों का दर्शन करना चाहता हूँ तब देवराज इंद्र ने सभी तीर्थों और देवताओ को नैमिषारण्य के लिए मिश्रिख क्षेत्र के चौरासी कोसीय परिधि में आने के लिए आमंत्रित करते है देवराज के आमंत्रण पर और जन कल्याण के लिए सभी तीर्थ व देवतागण नैमिषारण्य की चौरासी कोसीय क्षेत्र में विराजमान हो गये मगर उस समय इंद्र के आमंत्रण पर प्रयागराज नही आये थे क्योंकि प्रयागराज सभी तीर्थों के राजा थे तब दधीचि जी की शर्त को पूरा करने के लिए पांच तीर्थो को मिलाकर पँच प्रयाग राज तीर्थ स्थापित किया जो आज भी ललिता देवी मंदिर के पास स्थित हैं , महर्षि दधीचि जी महाराज ने चौरासी कोसीय परिक्रमा के दौरान पड़ने वाले सभी तीर्थों और देवताओ से जनकल्याण के लिए निवेदन किया था कि आप सभी अपने स्वरूप को यही छोड़कर जाए और आने वाले समय मे जब मनुष्य यह 84 कोषीय परिक्रमा करेगा तब उसको वही पुण्य मिलेगा जो आप सब के तीर्थो में जाने पर फल मिलता होगा तब महर्षि दधीचि जी के आग्रह पर सभी देवता और तीर्थ अपने अपने अंशो को चौरासी कोसीय परिक्रमा की परिधि में छोड़कर चले जाते है जिससे आज भी चौरासी कोसीय परिक्रमा के दौरान परिक्रमार्थियों को सभी तीर्थों और देवताओं के दर्शन प्राप्त होते हैं” तब महर्षि दधीचि बड़ी संख्या में ऋषिगणों के साथ नैमिषारण्य तीर्थ में स्नान करके सर्व प्रथम गणेश जी का पूजन कर चौरासी कोसीय परिक्रमा का प्रारम्भ किया था यही से चौराशी कोशीय परिक्रमा का प्राम्भ हुआ ।

इस पन्द्रह दिवसीय परिक्रमा मेंले में महर्षि दधीचि जी ने सभी तीर्थों और देवताओ का दर्शन कर अपने शरीर पर दही और नमक का लेप लगाकर अपने शरीर को गायो से चटवाकर अपनीअस्थिया देवेन्द्र को दान कर दिया था तब उनकी हड्डियों से देवराज ने वज्र बनाया जिससे देवराज इंद्र द्वारा वृत्तासुर का वध हुआ ।

नैमिषारण्य तीर्थ की पौराणिक चौरासी कोसीय परिक्रमा का शुभारंभ हो गया जिसमे देश विदेश केे कोने कोने से लाखों की संख्या में संत, गृहस्थ, बच्चे, बूढ़े, महिलाये सम्मलित होते है जो दैहिक दैविक भौतिक सुखों का त्याग कर जर्जर पथरीले मार्गो पर भी चलने को मज़बूर है लेकिन वह मुस्कराते हुए राम नाम के जयघोष के साथ कठिन मार्गो से गुजरते हुए पन्द्रह दिनों की परिक्रमा करते हैं इस परिक्रमा में दिव्य ,संतो ,महात्माओ के दुर्लभ दर्शन प्राप्त होते है जिनमे कोई पालिकी से ,हाथी पर, घोड़ा पर, बैलगाड़ी से , टैक्टर ट्राली पर ठेलिया से ,मोटरसाइकिल, गाड़ियों आदि पर सवार होकर संतगण व श्रद्धालु परिक्रमा करते हैं परिक्रमा मार्ग पर पड़ने वाले ग्यारह पड़ावो पर देवलोक के जैसा नजारा देखने को मिलता हैं खुले आसमान के नीचे, ईटो के चूल्हो पर लकड़ी बीनकर भोजन बनाते हैं और ढोलक, मजीरा, चिमटे की थाप पर कीर्तन कर परिक्रमार्थी झूमते नृत्य गान करते हैं वह सांसारिक मोह को त्याग कर भक्ति के रस में डूब जाते हैं परिक्रमा मार्गो पर पड़ने वाले गाँवो के लोग परिक्रमार्थियों का स्वागत सम्मान करते हैं ग्रामवाशी बड़ी संख्या में बड़े बच्चे बहुत हर्षोल्लास के साथ मार्गो पर खड़े होकर राम नाम के साथ चाय, पानी,खाना खिलाकर बड़े सम्मान के साथ विदा करते हैं ” चक्रतीर्थ में स्नान कर गणेश जा का पूजन कर लड्डुओं का भोग लगाकर परिक्रमार्थी डंके की ध्वनि बजाने के उपरांत पहला पड़ाव कोरौना की ओर प्रस्थान करते है ।

“आप को बताते चले कि इस बार चौरासी कोसीय परिक्रमा में सम्मलित होने वाले परिक्रमार्थियों की राह जहां मुश्किलों से भरी होगी वही प्रमुख परिक्रमा के प्रारम्भिक मार्ग पर जगह जगह गड्ढे ,सड़क उखड़ी पड़ी, बजरी, जलभराव, कीचड़ की समस्या टूटी पुलिया जो अभी भी बनी नही हैं मार्गो पर लगी स्ट्रीट लाईटे भी खराब पड़ी हैं जिससे परिक्रमार्थियो को अंधेरे का सामना करना पड़ेगा भैरमपुर गाँव के मार्ग पर अतिक्रमण, मार्ग के किनारे गोबर के ढेर लगे हैं जो अभी तक पड़े हैं तमाम परिक्रमार्थी नंगे पांव ,दंडवत करते हुऐ परिक्रमा करते हैं इस बार पथरीलेे मार्ग पर उनकी कड़ी परीक्षा होगी । ” चौरासी कोसीय परिक्रमा में पड़ने वाले ग्यारह पड़ाव ” कोरौना ,हरैया, नगवा कोथावां, उमरारी, साखिन गोपालपुर, दधनामऊ, मडरुवा,जरीगवा, नैमिषारण्य, कोल्हुवा बरेठी,मिश्रिख पड़ाव पड़ते है ।

News Reporter
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