; …कि दिल अभी भरा नहीं ‘ कैसे सपनों की नगरी से रूबरू हुए देव आनंद? - Namami Bharat
…कि दिल अभी भरा नहीं ‘ कैसे सपनों की नगरी से रूबरू हुए देव आनंद?

आलोक रत्न उपाध्याय: देव आनंद. एक ऐसा नाम जो कभी पुराना नहीं होगा. एक ऐसी शख्सियत जो सदियों बाद भी जवान रहेगी. एक ऐसा चेहरा जो हमेशा हंसता रहा. एक ऐसा एक्टर जिसने हिंदी फ़िल्मों का इतिहास ही बदल दिया. एक ऐसा डायरेक्टर जिसने कभी हार नहीं मानी.एक ऐसा प्रोड्यूसर जिसके दिल में अपना सबकुछ बेच कर भी फ़िल्में बनाने की जिद थी .एक ऐसा इंसान जिसने प्यार बांटा और प्यार ही पाया. एक ऐसा आशिक जो मुहब्बत में नाकाम होने के बाद भी मुस्कुराता रहा….

देव साहब ने कई हिट फ़िल्में दी. उनमें कई फ़िल्मों के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि ऐसी फ़िल्में दुबारा कभी नहीं बन सकती.देव आनंद ने जीनत अमान और टीमा मुनीज जैसे कई कलाकार फ़िल्म इंड्स्ट्री को दिए.आजादी के नए नए माहौल वाले हिन्दुस्तान में जब भक्ति और देश भक्ति फ़िल्मों के अलावा सिर्फ़ रोमांटिक फ़िल्में ही हिट हुआ करती थी, उस समय देव आनंद ने गुरूदत्त के साथ मिलकर थ्रिलर सस्पेंस फ़िल्मों का चलन शुरू किया. देव साहब के बारे में कहने को इतना कुछ है कि समय कभी पूरा पड़ ही नहीं सकता. उनकी फ़िल्में , उनका स्टारडम, उनका प्यार, उनका स्ट्रगल,उनकी दोस्ती की कहानियां.. तो चलिए शुरूआत करते हैं उनके बचपन से.

बचपन में देव साहब को क्रिकेट और गुल्ली डंडे के अलावा कंचे इकठ्ठे करने का बेहद शौक था-बिल्कुल पागलपन की हद तक. लेकिन देव साहब के पिता को कंचों का वो खेल ज्यादा पसंद नहीं था. एक बार देव साहब मुहल्ले के बच्चों के साथ कंचे खेल रहे थे . तभी उनके पिता वहां आ गए और देव आनंद अपने सभी कंचे वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए. कुछ देर बाद जब वो पास उस जगह पर अपने कंचे लेने पहुंचे तो देखा कि उनके कंचे मुहल्ले के कुछ दूसरे बच्चों ने ले लिए थे.अपने कंचे वापस लेने के लिए देव साहब मुहल्ले के बच्चों से लड़ पड़े.बाद में देव साहब के छोटे भाई गोल्डी यानी विजय आनंद ने बड़ी मुश्किल से उन्हे रोका.उस शाम को याद करते हुए देव आनंद अपनी ऑटोबायोग्रॉफ़ी रोमांसिग विथ लाइफ़ में लिखा है – ‘कंचों से मुझे इतना प्यार था कि उन्हे मैं अपने बिस्तर पर साथ लेकर सोता था. और रात में सपने में भी कंचे ही देखा करता था. लेकिन उस शाम का शुक्रिया. उस शाम के बाद मेरे सपनों में कंचों के लिए कोई जगह नहीं रही.’

ग्रेजुएशन कंप्लीट करने के बाद देव साहब आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहते थे. उनकी इच्छा थी कि वो इंग्लैंड के किसी नामी कॉलेज से इंग्लिश लिट्रेचर में एमए करें. लेकिन वो कहते हैं न कि अच्छे दिन हमेशा नहीं रहते. जब देव साहब ने ग्रेजुशन पूरा कर लिया उसी समय उनके पिता की वकालत कमजोर पड़ती गई और घर में पैसों की कमी होती चली गई. इसके बाद देव आनंद ने आर्मी ज्वाइन की कोशिश की, लेकिन ब्रिटिश आर्म्ड फ़ोर्स के रॉयल इंडियन नेवी ने उन्हे रिजेक्ट कर दिया.उन दिनों को याद करते हुए देव साहब अपनी ऑटोबायोग्राफ़ी रोमांसिंग विथ लाइफ़ में लिखते हैं – ‘मेरी आंखों में हर वक्त आंसू रहते थे. मुझे लग रहा था जैसे मेरे सामने कोई बहुत बड़ी काली दीवार खड़ी हो गई है. जैसे रावी नदी ने अचानक से बहना बंद कर दिया हो. मेरा दिमाग विद्रोह कर रहा था. मैं अपने सपनों को पूरा करने के लिए कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था’

लेकिन देव साहब तो मस्त मौला इंसान थे..उन्होने पढ़ाई छोड़कर मुंबई जाने और एक्टर बनने का फ़ैसला किया.हांलांकि उनके इस फ़ैसले के पीछे की वजह वो दो लड़कियां थी जो कॉलेज के जमाने से ही देव साहब के इश्क में पागल थी. उन लड़कियो ने देव आनंद को हीरो बनने के लिए कैसे प्रेरित किया इसका जिक्र देव साहब ने अपनी ऑटोबायोग्रॉफ़ी में विस्तार से किया है, जिसका सारांश ये है कि- ‘दो लड़कियां मेरे पीछे पागल थी.उनका नाम था उषा चोपड़ा और फ़्लोरेंस. दोनों ही मेरे साथ की पढ़ी हुई थी.इनमें किसी ने जबदस्ती मुझे किस किया था तो किसी ने मेरे लिए आंसू बहाए. मैने सोचा कि जब ये दो लड़कियां मेरी दीवानी हो सकती है तो पूरी दुनिया क्यों नहीं . मैने आइने में अपनी शक्ल देखी और मुंबई जाकर एक्टर बनने का ख्वाब देखने लगा.जब मैने मुंबई की ट्रेन पकड़ी तो उषा भी मेरे साथ चलने की जिद करने लगी. लेकिन तब तक ट्रेन चल चुकी थी और उषा प्लेटफ़ॉर्म पर ही रह गई, और हम हमेशा के लिए अलग हो गए’

जुलाई 1943 को देव आनंद ने लाहौर से मुंबई जाने के लिए फ़्रंटियर मेल पकड़ ली.देव साहब फ़्रंटियर मेल के थर्ड क्लास में बैठे थे और उनकी जेब में महज तीस रूपए पड़े थे. मुंबई में देव साहब के बड़े भाई चेतन आनंद पहले से ही मौजूद थे. चेतन वहां दून स्कूल की तरफ़ से छुट्टियां बिताने गए थे. चेतन ने मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर देव आनंद को रिसीव किया और इस तरह देव साहब सपनों की नगरी मुंबई से रूबरू हुए.

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आलोक रत्न उपाध्याय ‘नमामि भारत’ के सलाहकार संपादक हैं. मूल रूप से बलिया जिले के रहने वाले आलोक रत्न उपाध्याय का पत्रकारिता में करीब 18 साल का अनुभव है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर आलोक रत्न उपाध्याय ने हिंदुस्तान अखबार, कोबरापोस्ट, न्यूज वर्ल्ड इंडिया, न्यूज 24 जैसे देश के नामी मीडिया संस्थानों में काम किया है. ये मूल रूप से फीचर लेखन और टीवी डॉक्यूमेंट्रीज के लिए जाने जाते हैं. इसके आलावा आलोक राजनीतिक विश्लेषक भी हैं. साहित्य लेखन में भी आलोक की रूचि है, इनकी आधा दर्जन से अधिक कहानियां प्रकाशित हो चुकी है.
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